28 . वातायनासन

इस आसन में ' वातायन ' . ऋषि आसन लगाते थे , इसीलिए इसे वातायनासन कहते हैं ।




 प्रायोगिक विधि भूमि पर आसन बिछाकर सीधे खड़े हो जाइए । दोनों पांव और घुटने आपस में मिला लें । ऐड़ियों , नितम्बों और सिर को एक सीधी रेखा में रखें । अब दाहिनी टांग को घुटने से मोड़कर ऐड़ी को बाईं टांग के जंघ - मूल से लगाएं । दोनों हाथों को प्रणाम की मुद्रा में जोड़ लीजिए । बाईं टांग के घुटने को धीरे - धीरे सामने की ओर मोड़ते हुए चित्रानुसार स्थिति में लाएं । दांए घुटने को बाईं ऐड़ी के पास भूमि से सटाइए । सांस की गति सामान्य रखिए । सरलतापूर्वक जितनी देर इस आसन में रह सकते हैं , रहिए । आसन तोड़कर विश्राम कीजिए । अब दूसरी टांग से भी इसी प्रकार आसन लगाइए । 

वातायनासन में ध्यान - इसमें नाभि , मूलाधार और त्राटक बिन्दु पर । ध्यान लगाया जाता है ।

लाभ - यह आसन मधुमेह , बहुमूत्र , वीर्य आदि के विकार को दूर करता है । इससे स्वप्नदोष का रोग दूर होता है । ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए भी यह उपयक्त है । सायटिका , हर्निया , पिंडलियों , घुटनों , कमर , मेरुदंड , गर्दन आदि के रोगों को दूर करके स्वस्थ और सबल बनाता है । यह शीघ्रपतन के दोष को भी दूर करता है ।

सावधानियां 1 . पूर्व दिशा की ओर मुंह करके आसन लगाएं । 2 . लड़कियों एवं महिलाओं को यह आसन नहीं लगाना चाहिए । 3 . अंगों को मोड़ने में सावधानी रखें । धैर्य के साथ अभ्यास करके आसन पर विजय प्राप्त करें ।